Monday, September 15, 2014

जुस्तजू ... कुछ भी तो नहीं

आरज़ू हो या जुस्तजू सब एक दिन चक्नाचूर हो ही जातें हैं
कुछ नहीं बचता उस नापाक दिल का
जो मोहब्बत करने चला होता है
नादान दिल झान्सों में आ जाता है
बहक जाता है झूठ और फरेब के जाल में
फिर कुछ नहीं बचता उस पागल प्रेमी का
न वजूद न दिमाग
कुछ रह जाता है तो वो एक जिंदा लाश
और कुछ नहीं
काश की ये  न होती
ये नापाक मोहब्बत
ये जुस्तजू
कुछ न होता
फिर तो कुछ भी न होता
वैसे भी क्या पुछें एक जिंदा लाश से
कुछ भी नहीं
उसके अरमानों का गला तो घूट चूका
बचा क्या है उसके पास
कुछ भी तो नहीं
कुछ भी नहीं

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