Friday, August 10, 2018

रेत का गुबार

एक वक्त था जब सब शांत था
हर तरफ खुशहाली थी
वो थे हम थे
सब ठीक ठाक चल रहा था
फिर,
वक़्त की एक अशांत शांत आंधी आयी
और सब कुछ बिखेर कर चली गयी
कुछ न बचा ,
न घर, न बगीचा और न ही इंसानियत
जो बचा , वो एक हंसता दहकता आग का दरिया
और वो शक्श जिसने सब उजाड़ दिया था
वो एक कली जो बची थी
मुरझा गयी
कोमल कपोलों सी उसकी हंसी
रुक सी गयी
चारों तरफ उजड़ा चमन
कहीं भी खुशी की एक झलक तक नहीं
दूर दूर तक रेत के ढेर
एक आंधी चली और
रेत का गुबार उठा
वो सब खुशियां अपने साथ ले गया
कली बची, सिमटी सी
किस्मत का खेल देखती रही
पलट गई वो
उस रेत के टीले से दूर
उसने खुद अपनी कब्र खोदी
और उसमें समा गई
फिर रेत का एक गुबार आया
कब्र ढक गयी रेत के कणों से
अब कली कहीं दिखती नहीं
कोई आशा भी नहीं

जो गया सो गया
अब न कुछ बाकी है
अब न फिर कोई कली खिलेगी
अब न कोई राधा नाचेगी
अब न कोई कान्हा होगा
अब होगा तो सिर्फ
हहशत और दहशत का नग्न नृत्य
अब होगी हाहाकार
धरती मिट्टी मिट्टी हो जाएगी
न नर रहेगा न नारी।

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