Tuesday, January 23, 2018

मैं ही क्यों?

वक़्त का तकाज़ा है,
रैन गयी सो बात गयी।

वक़्त क्या नहीं सिखला देता है,
सब कुछ तोह वक़्त पर निर्भर है ,
व्यक्ति विशेष तो मात्र एक प्यादा है,
खेल तो कोई और ही खेल रहा है।

हर बात पे एक बात भारी है ,
मैं ही क्यों?
हर कोई यही सोच कर बैठा है
कि मैं ही क्यों फलाना काम करूं
मैं ही क्यों तड़प तड़प कर जियूँ,
बस मैं ही क्यों?

आज जब हमने भी अकड़ दिखाई
तो वो बोले
भाया ना कर ये ज़िद्द,
इस ज़द्दोज़हद में उम्र गुज़र जानी है,
छड्ड परे ये जज़्बात,
जी ले अपनी ज़िंदगी ज़िंदादिली से।

हम अभी तो मिलें हैं कल परसों,
ये इश्क़ अब भी नया है,
क्यों इस पर ग्रहण लगाती हो प्रिये,
चलो छोडो ये बातें
आओ इश्क़ के समंदर में गोते लगाएं।

उनके यही अदा तो हमें भाती हैं,
कभी नीम नहीं,
बस मीठी मीठी रसभरी बातें।

पर फिर भी ज़ेहन में उभर कर आता है सवाल,
मैं ही क्यों?

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